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भूतनाथ - खण्ड 5

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :277
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8364
आईएसबीएन :978-1-61301-022-8

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भूतनाथ - खण्ड 5 पुस्तक का ई-संस्करण

।। तेरहवाँ भाग ।।

 

पहिला बयान

सूर्योदय होने में यद्यपि अभी विलम्ब है फिर भी ठण्डी-ठण्डी दक्षिणी हवा का चलना प्रारम्भ हो गया है और वह पलंग पर पड़े रहने वालों को नींद में मस्त कर रही है।

खास बाग महल के अपने सोने वाले कमरे में गोपालसिंह सुन्दर पलंग पर लेटे हुए हैं। एक पतली चादर उनके बदन पर पड़ी है पर सिर्फ गर्दन तक, मुँह का हिस्सा खुला हुआ है। वे सोये हुए नहीं हैं बल्कि अभी-अभी उनकी आँख खुली है और वे पलंग पर लेटे ही लेटे खिड़की की राह नीचे के नजरबाग पर निगाहें डाल रहे हैं।

यह छोटा-सा नजरबाग महल से सटा हुआ और खास बाग के दूसरे दर्जे में है। हमारे पाठक चन्द्रकान्ता सन्तति में इस खास बाग और इसके चारों दर्जों का हाल अच्छी तरह पढ़ चुके हैं अस्तु यहाँ पर उसका हाल लिखने की कोई जरूरत नहीं है हाँ इतना कह देना आवश्यक है कि तीसरे दर्जे में बने हुए ऊंचे बुर्ज का एक भाग उस खिड़की में से दिखाई पड़ रहा है जिसके सामने गोपालसिंह का पलंग बिछा हुआ है।

इधर-उधर निगाहें दौड़ाते हुए यकायक गोपालसिंह कुछ चौंक से गये और तब तकिया के सहारे उठ कर गौर से नीचे की तरफ देखने लगे। थोड़ी देर बाद वे पलंग पर उठकर बैठ गए और जब इससे भी मन न माना तो पलंग छोड़ खिड़की के पास आकर खड़े हो नीचे की तरफ देखने लगे। अब हमें भी मालूम हुआ कि जिसने उन्हें ऐसा करने पर मजबूर किया है वह एक कमसिन औरत है जो नीचे बाग की रविशों पर इधर-उधर घूम रही है।

गोपालसिंह कुछ देर तक खिड़की के पास खड़े सोचते रहे कि वह कौन औरत होगी या उसे यहाँ आने की क्या जरूरत पड़ सकती है। पहिले तो उनका ख्याल महल की लौंडियों की तरफ गया पर थोड़ी देर में विश्वास हो गया कि यह उनके महल से सम्बन्ध रखने वाली कोई औरत नहीं है क्योंकि घूमते ही फिरते वह चमेली की एक झाड़ी के पास पहुँची और उसकी आड़ में कहीं लोप हो गई।

कुछ देर तक गोपालसिंह इस आशा में रहे कि वह झाड़ी के बाहर निकलेगी पर जब देर तक राह देखने पर भी उसकी सूरत दिखाई न पड़ी तो उन्होंने आप ही आप धीरे से कहा, ‘‘उस झाड़ी में से तो तीसरे दर्जे में जाने का रास्ता है, कहीं वह वहीं तो नहीं गई है!’’ मगर इस ख्याल पर भी उनका मन न जमा क्योंकि वे विश्वास नहीं कर सकते थे कि कोई अनजान आदमी उस रास्ते का हाल जानता होगा। आखिर उनका जी न माना, वे जाँच करने के लिए कमरे के बाहर निकले।

कमरे के बाहर वाले दालान से नीचे की मंजिल में उतर जाने के लिए संगमर्मर की सीढ़ियाँ बनी हुई थीं जिनकी राह उतर कर गोपालसिंह बात की बात में उस नजर बाग में जा पहुँचे। रविशों पर घूमते और गौर से देखते हुए वे उस चमेली की झाड़ी के पास जा पहुँचे पर यहाँ भी उन्हें किसी की सूरत दिखाई न पड़ी जिससे ताज्जुब के साथ वे तरह-तरह की बातें सोचने लगे। इस समय बहुत थोड़े लोग जागे थे और इस बाग में तो किसी की भी सूरत दिखाई न पड़ी थी।

गोपालसिंह ने उस झाड़ी के कई चक्कर लगाए और इधर-उधर भी तलाश किया पर उस औरत का कहीं पता न लगा और अन्त में उन्हें विश्वास करना पड़ा कि वह चाहे जो भी रही हो मगर जरूर तिलिस्मी राह से बाग के तीसरे दर्जे में चली गई है।

इस विचार ने गोपालसिंह के दिल में तरद्दुद और साथ ही कुछ डर भी पैदा कर दिया क्योंकि आजकल उनके चारों तरफ जिस तरह की साजिशें और चालबाजियाँ चल रही थीं उनसे वे बहुत ही परेशान और घबराए हुए से हो रहे थे। कुछ देर तक तो वे वहीं खड़े कुछ सोचते रहे और तब उसी झाड़ी के अन्दर घुस गये जिसके अन्दर जाकर वह औरत गायब हो गई थी।

दूर तक फैली हुई झाड़ी गुञ्जान और इस लायक थी कि कई आदमी इसके अन्दर बखूबी छिप सकते थे। इसके बीचोबीच में जमीन के साथ लगे एक पीतल के बड़े मुट्ठे को उन्होंने किसी क्रम के साथ घुमाना शुरू किया। देखते-देखते वहाँ एक रास्ता दिखाई पड़ने लगा। छोटी-छोटी घूमघुमौवा सीढ़ियाँ नीचे को गई हुई थीं जिन पर गोपालसिंह धीरे-धीरे उतरने लगे। सीढ़ियां तय होने पर एक अंधेरी सुरंग मिली जिसके अन्दर उन्होंने पैर रक्खा ही था कि ऊपर वाला रास्ता बन्द हो गया।

लगभग एक घड़ी तक इस सुरंग में चलने के बाद गोपालसिंह एक दालान में पहुँचे जिसको पार करने पर ऊपर चढ़ने की सीढ़ियाँ दिखाई दीं। सीढ़ियों पर चढ़ कर ऊपर पहुँचे और अपने को तिलिस्मी बाग के तीसरे दर्जे में पाया।

यह एक बड़ा बाग था जिसके बीच में एक नहर जारी थी और बहुत से मेवे तथा फलों के पेड़ मौजूद थे। गोपालसिंह चारों तरफ नजर दौड़ा ही रहे थे कि सामने थोड़ी दूर पर बने हुए संगमर्मर के एक चबूतरे पर उनकी नजर पड़ी और वे चौंक गए क्योंकि इस चबूतरे के ऊपर उन्होंने उसी औरत को बेहोश पड़े हुए देखा जिसकी खोज में यहाँ तक पहुँचे थे। तेजी के साथ चल कर वे उस जगह पहुँचे और एकटक उसकी तरफ देखने लगे।

हम कह सकते हैं कि अब तक गोपालसिंह ने शायद कभी भी किसी ऐसी औरत को देखा न होगा जिसकी खूबसूरती इससे बढ़-चढ़ कर हो। इसका चेहरा, नखशिख, कद और ढांचा ऐसा था कि बड़े-बड़े योगियों और तपस्वियों को वश में कर ले और कुछ देर तक तो गोपालसिंह सकते की-सी हालत में एकटक खड़े उसकी तरफ देखते रह गए। कभी उसके सुडौल मुखड़े को देखते, कभी पतली गर्दन को, कभी मुलायम-मुलायम हाथों पर निगाह डालते और कभी नाजुक पैरों पर, लेकिन अन्त में किसी तरह उन्होंने अपने को सम्हाला और उसके पास बैठकर गौर से देखने लगे क्योंकि उसकी साँस बिल्कुल बन्द जान पड़ती थी, पर फिर बहुत ध्यान के साथ देखने पर धीरे-धीरे सांस चलने की आहट मिली और उनका डर दूर हुआ।

यह सोच कर कि जरूर यह किसी कारण से बेहोश हो गई है और शायद पानी से चेहरा तर करके हवा करने से होश में आ जाय वे वहाँ से उठ कर उस नहर की तरफ चले जो थोड़ी ही दूर पर बह रही थी और जिसका साफ निर्मल जल मोती की तरह चमक रहा था।

उसके ठण्डे पानी में अपना दुपट्टा तर किया और उसे लिए हुए पुनः उस चबूतरे की तरफ लौटे, पर यह क्या? वह चबूतरा खाली था और उस पर बेहोश औरत का कहीं पता न था। भौंचक-से होकर वे चारों तरफ देखने लगे। अभी-अभी तो वे उसे यहाँ छोड़ गये थे, तब इतनी ही देर में वह कहाँ गायब हो गई। क्या कोई आदमी आकर उसे उठा ले गया अथवा वह आप ही होश में आकर कहीं चली गई? मगर उसकी बेहोशी तो ऐसी न थी कि वह इतनी जल्दी होश में आती या कहीं चली जाती! खैर देखना तो चाहिए ही कि वह कहाँ गई? इत्यादि बातें सोचते हुए गोपालसिंह ने हाथ का गीला दुपट्टा उसी जगह छोड़ दिया और चारों तरफ घूम-घूम कर खोज करने लगे।

उस बड़े बाग में देर तक राजा गोपालसिंह उस औरत को ढूँढ़ते रहे परन्तु कहीं भी उसका पता न लगा और आखिर सब तरफ से निराश हो वे पुनः उसी नहर के किनारे आकर खड़े हो कुछ सोचने लगे।

यकायक नहर के साफ पानी में उन्हें कोई चीज बहती हुई दिखाई पड़ी। वह कपड़े का टुकड़ा था जिसके साथ एक कागज बंधा हुआ था। गोपालसिंह को ऐसा ख्याल हुआ कि यह टुकड़ा उस औरत की साड़ी का ही है।

उन्होंने उत्कंठा के साथ उसे बाहर निकाला और कोने में बंधी हुई चीठी खोली। एक छोटी और बहुत ही हलकी लिखावट इस पर नजर आई जिसका पढ़ना अत्यन्त कठिन हो रहा था परन्तु बड़ी देर तक गौर करने के बाद राजा गोपालसिंह को उसका मतलब समझ में आ ही गया। वह मजमून यह था—

‘‘मैं चक्रव्यूह में कैद हूँ।’’

परन्तु ‘चक्रव्यूह’ का नाम पढ़ते ही गोपालसिंह चौंक गए। अपने पिता और चाचा से वे सुन चुके थे कि ‘चक्रव्यूह’ यद्यपि उनके जमानिया तिलिस्म का ही एक हिस्सा है, मगर वह जगह इतनी भयानक है कि उसके आगे जमानिया बाग का चौथा दर्जा भी कुछ नहीं है तथा वे यह भी सुन चुके थे कि चक्रव्यूह में फंसा हुआ आदमी उस समय तक नहीं छूट सकता जब तक कि वहाँ का तिलिस्म तोड़ा न जाय, अस्तु इस चिट्ठी में ‘चक्रव्यूह’ का नाम पढ़कर उनके आश्चर्य का ठिकाना न रहा।

वे उसी चबूतरे के पास आ पहुँचे और उस पर बैठ कर तरह-तरह की बातें सोचने लगे। ‘चक्रव्यूह’ तो बड़ा भयानक तिलिस्म है, वहाँ यह औरत क्योंकर पहुँच गई? आपसे आप गई या किसी ने उसे ले जाकर बन्द कर दिया? अगर कैद किया तो किसने? फिर अभी-अभी तो वह मेरे सामने बेहोश पड़ी थी, मेरे दुपट्टा गीला करके लाने तक में चक्रव्यूह में क्योंकर जा पहुँची? क्या इतनी ही देर में वह होश में भी आ गई और पत्र लिखकर भेजने योग्य हो गई!

नहीं-नहीं, यह जरूर कुछ धोखा है। मालूम होता है कि वह औरत अथवा उसकी आड़ में कुछ और लोग मुझे किसी और धोखे में डालना चाहते हैं। इस भेद का अवश्य कुछ पता लगाना चाहिए, इत्यादि बातें बहुत देर तक राजा गोपालसिंह सोचते रहे और अन्त में यह कहते हुए उठ खड़े हुए, ‘‘बिना इन्द्रदेव से सलाह लिए यह मामला तय न होगा।’’

जिस तरह से गये थे उसी रास्ते से वे अपने महल में लौटे और पहुँचते ही इन्द्रदेव को बुलाने के लिए अपने खास खिदमतगार को भेजा। इन्द्रदेव उन दिनों जमानिया ही में थे और उनका डेरा भी महल से बहुत दूर न था, अस्तु खिदमतगार बहुत जल्दी ही उन्हें साथ लेकर लौटा। गोपालसिंह का चेहरा देखते ही बुद्धिमान इन्द्रदेव समझ गये कि वे किसी गहरी चिन्ता में पड़ गए हैं अस्तु तखलिया होते ही उन्होंने पूछा, ‘‘क्या मामला है?’’

जवाब में गोपालसिंह ने शुरू से आखिर तक सब हाल कह सुनाया और अन्त में वह कपड़े का टुकड़ा और चीठी सामने रख दी। कपड़े के इस टुकड़े को देखते ही इन्द्रदेव चौंके पर तुरन्त ही अपने आश्चर्य को गम्भीरता के पर्दे में छिपा कर इस तरह वह चीठी देखने लगे कि गोपालसिंह पर कुछ भी प्रकट न हो पाया।

देर तक इन्द्रदेव न जाने किस सोच में पड़े रहे और इस बीच गोपालसिंह बेचैनी के साथ उनका मुँह देखते रहे। आखिर उनसे न रहा गया और उन्होंने इन्द्रदेव से पूछा, ‘‘आप किस गौर में पड़ गये?’’

इन्द्र० : इस ‘चक्रव्यूह’ शब्द ने मुझे फिक्र में डाल दिया है।

गोपाल० : यह शब्द जिस भयानक स्थान की ओर इशारा करता है उससे तो आप वाकिफ ही होंगे।

इन्द्र० : हाँ बहुत कुछ, मगर आप उसके विषय में क्या जानते हैं?

गोपाल० : सिर्फ इतना ही कि वह एक बहुत ही भयानक तिलिस्म है और उसमें फँसा हुआ मनुष्य किसी तरह छूट नहीं सकता चाचाजी (भैयाराजा) की जुबानी मैंने कुछ हाल उसका सुना था पर वे पूरा हाल कह न सके और अन्तर्ध्यान हो गये।

गोपालसिंह की आँखें डबडबा आईं और उन्होंने कोशिश करके अपने को सम्हाला। इन्द्रदेव बोले, ‘‘मैं भी चक्रव्यूह के विषय में कुछ विशेष नहीं जानता मगर जो कुछ जानता हूँ आपसे कह देना पसन्द करूँगा।

गोपाल० : हाँ हाँ जरूर कहिए, मेरा मन बेचैन हो रहा है।

इन्द्रदेव ने यह सुन कुछ कहने के लिए मुँह खोला ही था उन्हें अपने सामने कुछ ऊँचाई पर कमरे की दीवार के साथ लटके शीशे में यह दिखाई पड़ा कि जहाँ पर वे और राजा गोपालसिंह बैठे हुए थे उसके पीछे का दरवाजा जरा सा खुला और फिर बन्द सा हो गया। इन्द्रदेव की तेज निगाहों ने उस दरवाजे के दूसरी तरफ किसी औरत का होना भी बता दिया और वे बात कहते-कहते रुक गये मगर फिर उन्होंने तुरन्त ही कहा, ‘‘हाँ हाँ सुनिये, मैं कहता हूँ।

(धीरे से) पीकोछि बासु।’’ सुनते ही गोपालसिंह समझ गये कि इन्द्रदेव का मतलब यह है कि उनके पीछे खड़ा हुआ कोई आदमी छिप कर उनकी बातें सुन रहा है। गोपालसिंह के महल तथा जमानिया राज्य में इस समय जैसा षड्यंत्र चारों तरफ मच रहा था उसके कारण तथा उन्हें बचाने की नीयत से इन्द्रदेव ने उनके लिए बहुत थोड़े से गुप्त इशारे ऐसे मुकर्रर कर रखे थे कि जिनके द्वारा बहुत थोडेर में वे अपना मतलब गुप्त रूप से उन्हें समझा सकते थे। उनका वह इशारा सुनते ही गोपालसिंह चौकन्ने हो गए और धीरे से उन्होंने पूछा, ‘‘काची?’’ (तब क्या करना चाहिए) इन्द्रदेव ने जवाब दिया, ‘‘आबे मेदू!’’ (आप चुपचाप बैठिये मैं देखता हूँ।) इसके साथ ही वे कुछ ऊँचे स्वर में बोले, ‘‘मैं अपना लबादा बाहर छोड़ आया हूँ जिसकी जेब में कुछ ऐसे कागज हैं जिनसे उस स्थान का पूरा भेद प्रकट होता है। ठहरिए मैं पहले उन कागजों को ले आऊँ।

इतना कहकर इन्द्रदेव उठ खड़े हुए और कमरे के बाहर चले मगर गोपालसिंह उसी जगह बैठे रहे। इन्द्रदेव का शक बहुत ही ठीक था। जिस जगह वे दोनों बैठे हुए थे उनके पीछे वाले दरवाजे के साथ कान लगा कर खड़ी एक लौंडी इन दोनों की बातें बड़े गौर के साथ सुन रही थी।

जब इन्द्रदेव कागजात लाने का बहाना कर के उठ खड़े हुए तो उस धूर्त लौंडी को भी कुछ सन्देह हुआ और वह उस जगह से हट बगल वाले कमरे से होती भीतर महल की तरफ चल पड़ी मगर दो ही दरवाजे लाँघे थे कि लपकते हुए इन्द्रदेव उसके पीछे जा पहुँचे और डपट कर बोले, ‘‘खड़ी रह, कहाँ जाती है?’’

इन्द्रदेव की सूरत देखते ही उस लौंडी की एक दफे तो यह हालत हो गई कि काटो तो लहू न निकले पर तुरन्त ही उसने अपने को सम्हाला और अदब से इन्द्रदेव को सलाम कर खड़ी हो गई। इन्द्रदेव ने पूछा, ‘‘तू क्या कर रही थी?’’

लौंडी: जी, सरकार आज सुबह से अभी तक स्नान आदि से निवृत्त नहीं हुए हैं उसी विषय में आज्ञा लेने आई थी मगर बात में लगे हुए देख लौट चली हूँ।

इन्द्रदेव ने यह सुन गौर से एक बार सिर से पैर तक उस लौंडी को अच्छी तरह देखा और तब कहा, ‘‘बिल्कुल झूठ, तू जरूर दगाबाज है। सच बता कि तू हम दोनों की बातें क्यों सुन रही थी? जल्दी बता नहीं मैं अभी तुझे जहन्नुम में भेज दूँगा।’’

उस लौंडी पर इन्द्रदेव का डर और रौब इतना छा गया कि वह बिल्कुल घबड़ा गई और डर के मारे काँपने लगी। इन्द्रदेव को यह विश्वास तो था ही कि जरूर कुछ दाल में काला है अस्तु वे बोले, ‘‘अगर तू सच-सच हाल बता देगी तो तेरी जान छोड़ दी जायगी!’’ इनकी बातचीत की आहट पा राजा गोपालसिंह भी उस जगह आ पहुँचे। अब तो उस लौंडी को अपनी जिन्दगी से पूरी नाउम्मीदी हो गई फिर भी उसने हिम्मत न हारी और गोपालसिंह को सामने देख अदब से उसने पूछा, ‘‘मैं यह जानने आई थी कि सरकार के गुसल में क्या देर है?

आँखों के ही इशारे से इन्द्रदेव ने अपना विचार गोपालसिंह पर प्रकट कर दिया जिसे समझ गोपालसिंह ने तालियों का एक गुच्छा उनकी तरफ बढ़ाया और कहा, ‘‘इस समय तो इस कम्बख्त को ठिकाने पहुँचाओ, फिर जाँच की जाएगी।’’

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